इक पत्थर आवाज़ दे रहा ,
मुझे नही रहना इस जग मे
सजो सको तो खुद को सॅंजो लो,
मैं तो बसता हूँ रॅग-रॅग मे
इक पत्थर ...........................
जहाँ पड़ा रहना था मुझको ,
आज खड़ा इंसान वही है
तुलता रहा जहाँ पे मैं तो,
बिकता अब इंसान वही है
जोड़ रहा अरि पत्थर-पत्थर ,
टूट रहा खुद अपने मद मे
इक पत्थर ..........
कभी टटोलो अपने मन को ,
मैं कठोर ना तेरे मन से,
भूल गया तू जॅन समाज को,
लूट रहा , लूटता लोभीपान से
पत्थर की सीमाएँ बुनता ,
खुद बँटता तू पत्थर बनके,
दोषित कुपित बना तू जॅग मे,
मत मुझको दोषित कर तन के.
इक पत्थर ....................
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