ना कोई कथित विचार ना एकल तन के कर्मो से,
ना कोई अवसाद पर्व ,ना अविरत मन और धर्मो से,
देश निराला होता है, जन जन के हितकर्मो से,
देश शांत वर्ध मान रहे ,ये हर मन की अभिलाषा है,
मैं क्या करू अकेला हू ,जन जन की ये भाषा है,
एक तार शृंगार करेगा , ऐसी सबकी आशा है,
ना कोई अवसाद पर्व , ना कोई व्यथित विकल्पो से,
देश निराला होता है, जन जन के हितकर्मो से,
सब मे है भाव समर्पण ,सोच रहे कब करे हम अर्पण,
भाव देश मे व्यक्त किया है हो जाएगा जीवन तर्पण,
ना जन के उन्माद भाव ना नियेती बरन निबंधो से,
देश निराला होता है, जन जन के हितकर्मो से,
स्वर्णिम भारत की आज़ादी का सबने दीप जलाया था,
दुर्ग और सम्रध्दि राष्ट्र का सबने महल सजाया था,
उन सपनो को भूल गये क्यू , जन निज रास रचाने मे,
मातृ-भूमि का कर्ज़ रह गया , अपने सपन भुनाने मे,
नही बनेगा सजग राष्ट्र यू,मन के व्यथित विमर्शो से,
देश निराला होता है, जन जन के हितकर्मो से,
अखंड भारत होगा अपना आओ हम सब संकल्प करे,
देवाशीशो की धरती मे मिलकर कायाकल्प करे,
उन्नती हर्षाली जग मे ना हो प्राणी जन मे क्लेश,
प्रीति सुसमिता बढ़े जगत मे, ऐसा हो अपना संदेश,
ऐसा राष्ट्र नवनिर्मित होगा, हम सब के संघर्षो से,
देश निराला होता है, जन जन के हितकर्मो से,
- जय तिवारी